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हिम्मत

हिम्मत  पसीने में भीगी, थके कदमों से दिव्या अपनी मित्र नीता के साथ जिम करके बाहर आ रही थी। बैकयार्ड के दूसरे छोर पर भूतिया फिल्म के कैरेक्टर जैसे उस व्यक्ति को देख ठिठक कर बोली, "यार, इधर से नहीं चलते हैं। उस शॉपिंग माल का गार्ड बड़ी गंदी नजरों से घूरता है।"  "मीन्स दोहरा काम करता है। चल इधर से ही।" कहकर नीता व्यंग्य से मुस्कुरा दी। अंदर बैठे डर ने थके शरीर में सोई हुई स्फूर्ति को जगाया तो दिव्या ने उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, "यार, उसने कुछ गंदे कमेंट कर दिए तो अच्छा नहीं लगेगा। हम ही रास्ता बदल लेते हैं। तू आज ही आई है, तुझे पता नहीं है कि कैसे खा जाने वाली आंखों से देखता है वह।"  "अरे, महीनें से जिमिंग करके भी डरती है उस मरियल से। चल , मैं हूं न।" नीता उसे पकड़कर हिम्मत बंधाती हुई आगे बढ़ी। सामने से उन दोनों को आता देख स्टूल पर बैठा गार्ड सतर्क हो गया। मुंह में बीड़ी दबाए वह एक टक उन्हें देखे जा रहा था। चंद मिनट बाद उसने माचिस की तीली जलाई और बीड़ी सुलगा दी। उन दोनों के पास आते ही बेहयायी से मुस्कराते हुए गार्ड की नजरे चौकन्नी हो उन दोनों ...

शाम की ख्वाहिशें

शाम की ख्वाहिशें  शाम की ख्वाहिशों को कभी तो चैन आए,  कि भटकते मुसाफिर को  दहलीज कोई बुलाए।। बातों की जिद हो ऐसी कि खामोशी भी मुस्कुराए हवाएं भीगे दुपट्टे को  परों पर अपने उड़ाए।। नजदीकियों की कशिश में  दूरियां खुद को ही मिटाएं खोई चाहतों की संदूक से  एक सपना कभी चुराएं।। इंतजार के लम्हात न हों यूं कदमों की आहटें छाएं जो छूट गईं वो आदतें कभी मिल कर हमें रूलाएं।। पत्थर हुई नजरों को  कभी नजारें तो आ सहलाएं और मुहब्बत अलविदा   कह कर मासूमियत की उम्र लौटाए।। घर लौटते परिंदे कभी तो  वो क्षितिज हमें दिखाएं  जहां जगमगाते सितारों को कोई दुआ न तोड़ पाए।। धड़कनों में उठती बेचैनियां  आंखों को न सताएं हकीकत के आसमां तले कभी तो मुलाकातें हमें     भरमाएं।। ये धुंधली लकीरें कभी तो  एक शाम ऐसी सजाएं  कि सुकूं भरे लम्हों में  सिरकतें यादों की न हो पाएं।।

पिता और बेटी की व्यथा

पिता और बेटी की व्यथा थककर जब बैठी तो लगा एक  पल ठहर जाऊं, पलट के जिंदगी के उसी दौर में जाऊं।।  जहां मां-बाप के साए में न फिकर परेशानी, गोद में सर रखकर जिंदगी का सुकून पाऊं।।  वह दौर कहां से लाऊं, फिर बचपन कहां से पाऊ।।  यदि वह प्यार मुझे मिल जाए,  बच्चों संग समय बिताऊ।।