शाम की ख्वाहिशें

शाम की ख्वाहिशें

 शाम की ख्वाहिशों को

कभी तो चैन आए, 

कि भटकते मुसाफिर को 

दहलीज कोई बुलाए।।


बातों की जिद हो ऐसी

कि खामोशी भी मुस्कुराए

हवाएं भीगे दुपट्टे को 

परों पर अपने उड़ाए।।


नजदीकियों की कशिश में 

दूरियां खुद को ही मिटाएं

खोई चाहतों की संदूक से 

एक सपना कभी चुराएं।।


इंतजार के लम्हात न हों

यूं कदमों की आहटें छाएं

जो छूट गईं वो आदतें

कभी मिल कर हमें रूलाएं।।


पत्थर हुई नजरों को 

कभी नजारें तो आ सहलाएं

और मुहब्बत अलविदा

  कह कर

मासूमियत की उम्र लौटाए।।


घर लौटते परिंदे कभी तो 

वो क्षितिज हमें दिखाएं 

जहां जगमगाते सितारों को

कोई दुआ न तोड़ पाए।।


धड़कनों में उठती बेचैनियां 

आंखों को न सताएं

हकीकत के आसमां तले

कभी तो मुलाकातें हमें 

   भरमाएं।।


ये धुंधली लकीरें कभी तो 

एक शाम ऐसी सजाएं 

कि सुकूं भरे लम्हों में 

सिरकतें यादों की न हो पाएं।।


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