प्रार्थना है मांगना भक्ति है समर्पण
स्कूल में जब एक या दो दिन की छुट्टी चाहिए होती थी तो टीचर कहते थे, "एक प्रार्थना पत्र लिखकर अपने पैरेंट्स या अभिभावक के हस्ताक्षर करवा कर ले आओ", यानी छुट्टी के लिए प्रार्थना करनी पड़ती थी या अर्जी देनी पड़ती थी । घर में कोई बीमार हो जाता था या फिर कोई समस्या आ जाती थी तो बड़े-बुजुर्ग कहते थे,"मन्दिर में जाकर भगवान से प्रार्थना करो कि समस्या हल हो जाए", यानी समस्या के निदान के लिए याचना करनी पड़ती थी या मदद मांगी जाती थी ।
आखिर प्रार्थना करते क्यों हैं ? क्या मांगना ही प्रार्थना कहलाता है ? प्रमुख तौर पर प्रार्थना करते समय हमें मांगना सिखाया गया है । इसलिए प्रार्थना का सीधा अर्थ है- किसी से याचना करना या मांगना । असहाय परिस्थितियों में मदद मांगना बेहद सामान्य बात हो सकती है, लेकिन एक स्वस्थ व्यक्ति को समस्या का समाधान स्वयं ही करना चाहिए क्या ? आप याचक बनकर क्यों खड़े रहें ? आप अपनी समस्या को स्वयं क्यों न हल करें ? आप क्यों किसी पर आश्रित रहें ?
ईश्वर की भक्ति की जा सकती हैं, आराधना की जा सकती है, लकिन ईश्वर से प्रार्थना की जाती है । आप भक्ति कीजिए, प्रार्थना नहीं । कुछ चाहिए वाली परिस्थति कभी-कभी आती है, तब चाहें तो प्रार्थना कर लें, लकिन बाकी समय भक्ति कीजिए । भक्ति में मांगने की आवश्यकता ही नही रह जाती । जो आप दे रहे हैं भावना और जो आपको प्राप्त हो रहा है, वह है ईश्वर के सनिध्य की अनुभूति । यही संपूर्ण पूजा है ।
असल में प्रार्थना है मांगना और भक्ति है समर्पण । प्रार्थना में हम कुछ पाने की आशा रखते है, लेकिन भक्ति में हम केवल प्रेमपूर्वक ईश्वर की आराधना करते हैं, बिना किसी अपेक्षा के । एक सच्चा भक्त मांगता नहीं, वह केवल भाव से जुड़ता है । उसे जो कुछ भी मिलता है, वह उसे ईश्वर की कृपा मानकर स्वीकार करता है । इसलिए सच्चे भक्त बनिए ।
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