Motivation कहानी
दर्पण
आज अलमारी की सफाई करते समय दादी का दिया हुआ दर्पण नंदिता के हाथ आ गया। दर्पण को देखते ही जीवन का कैशौर्य
सजीव हो उठा। उसकी दादी ने पुराने संदूक से निकाल कर उसे यह दर्पण दिया था। कहा था, "ले, सारे दिन दर्पण में अपने आपको निहारती रहती है, अब इस दर्पण को साथ ही रखा करना।" सर्दियों में छत पर पढ़ाई के बहाने गई नंदिता बार-बार अपने आपको दर्पण में निहारती थी। पूछती थी, "बता दर्पण, मैं लगती हूं कैसी?" फिर स्वयं ही प्रतिउत्तर में कहती, "सारे जहां
की खूबसूरती समाई हो जैसे।" सांचे में ढली नंदिता स्वयं ही अपने रूप पर मोहित हो जाया करती थी। सोचती थी, कौन राजकुमार आएगा, जो उसके रूप को कविताओं में पिरोएगा! आज उसी दर्पण में जब अपना प्रौढ़ चेहरा देख रही थी तो जीवन की गहन, कठिन यात्रा उससे छुप नहीं रही थी। दादी के साथ कितना कुछ जीवन में पीछे छूट गया छा, जिसकी महीन रेखाएं
चेहरे को परिपक्वता दे रही थीं।
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